Two Lines Shayari – हूँ चल रहा उस राह पर जिसकी कोई मंज़िल
हूँ चल रहा उस राह पर जिसकी कोई मंज़िल नहीं
है जुस्तजू उस शख़्स की जो कभी हासिल नहीं
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हूँ चल रहा उस राह पर जिसकी कोई मंज़िल नहीं
है जुस्तजू उस शख़्स की जो कभी हासिल नहीं
नहीं निगाह मे मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही |
रफ़्ता-रफ़्ता मेरी जानिब, मंज़िल बढ़ती आती है,
चुपके-चुपके मेरे हक़ में, कौन दुआएं करता है।
मंजिलें सब का मुकद्दर हों, यह ज़रूरी तो नहीं
खो भी जाते हैं, नयी राहों पर चलने वाले
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल, मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने अभी मील का पत्थर नहीं देखा
पहुँचे जिस वक़्त मंज़िल पे तब ये जाना
ज़िन्दगी रास्तों में बसर हो गई
हम खुद तराशते हैं मंजिल के संग ए मील
हम वो नहीं हैं जिन को ज़माना बना गया
हर सपने को अपनी साँसों में रखे
हर मंज़िल को अपनी बाहों में रखे
हर जीत आपकी ही है,
बस अपने लक्ष्य को अपनी निगाहों में रखे!
मंज़िल का पता है न किसी राहगुज़र का
बस एक थकन है कि जो हासिल है सफ़र का